*सम्पादकीय*
✍🏾जगदीश सिंह सम्पादक✍🏾
*गिले शिकवे मिटाकर सोया करो*!!
*ये मौत मुलाकात का मौका नहीं देती*!! राष्ट्रीय अध्यक्ष राष्ट्रीय पत्रकार संघ भारत

गजेंद्र नाथ पांडेयपूर्वांचल बुलेटिन निष्पक्ष खबर अब तक, सदस्य राष्ट्रीय पत्रकार संघ भारत

*सम्पादकीय*
✍🏾जगदीश सिंह सम्पादक✍🏾
*गिले शिकवे मिटाकर सोया करो*!!
*ये मौत मुलाकात का मौका नहीं देती*!!
इस रंजोगम की दुनियां में जिंदगी का फैसला भी अकस्मात ही होता है! जब तक आदमी जिंदा है लोग कीमत नहीं समझते, मरने के बाद हर कोई रोता है!वास्तविकता के धरातल पर हर रोज अपनों के दर्द से कराहते लोग अपनत्व के ऐसे रोग से ग्रसित हैं की चाहत की बस्ती से चाहकर भी बाहर नहीं निकल पा रहे है!मतलब परस्तो के मतलबी समाज में आज जिस तरह का विकार अधिकार कर लिया है ऐसे में वही शख्स शिकार बन रहा है जिसने जीवन भर तिल तिल कर दम तोड़ते उस बाग को सींचता संवारता रहा जिसके दरख्तों से न छांव की उम्मीद रही,न फल की, फिर भी कर्म की महत्वाकांक्षी खेती करने में कभी गुरेज नहीं करता! उसे पता भी है की एक दिन यही कर्म खता बन जायेगा फिर भी वक्त की मांग पर उस राह का मुसाफिर बन चलता रहता है जिस राह की आखरी मंजिल पर सिर्फ तन्हाई  मिलना शास्वत सत्य है!अजब गजब का खेल जीवन के सफर में देखकर भी आदमी कर्तब्य की अमिट इबारत को पढ़ते आगे बढ़ता तब तक चलता है जबतक उम्र का पानी नादानी की नदी से सूख नहीं जाता। मरूस्थल बनी ज़िन्दगी की कहानी में आये सारे किरदार वक्त के साथ सम्बन्धों की कश्ती को दरकिनार कर अधिकार की बस्ती में अपनी पहचान बनाने में मशगूल हो जाते है जहां सिर्फ तन्हाई का बसेरा होता है न कोई अपना होता है न चाहत का चितेरा होता है!
*भरे बाजार में अक्सर घूम आता हूं खाली हाथ*!
*पहले पैसे नहीं थे अब ख्वाहिश नहीं है*!!
समय के शागिर्दगी में जिंदगी रंग बदलती रहती है!ख्वाबों का कारवां कब गुजर जाता पता ही नहीं चलता!ज़िम्मेदारियों की सरपरस्ती में सम्बन्धों की तिजारत कब शुरू हो जाती है इसका आभास किसी को भी नहीं हो पाता! बदलाव की बहती हवा कब आंधी बन जाती कब तबाही की निशानी छोड़ जाती  समझ में नहीं आता!उम्र की उबलती दरिया जवानी की रवानी से कब सूखकर रेत से भरी  अनकही कहानी बन जाती इसका अंदाजा तब हो पाता है जब अपने ही चालाकी के चौमुहानी पर घृणित सोच की ख्वाहिश लिए कमजर्फ समझ बेखौफ मुस्कराने हिमाकत करने लगता! तब तक तो समझदारी के सागर से ख्वाहिशों की कश्ती साहिल पर लंगर डाल चुकी होती है। न कोई चाहत न कही से राहत! हर पल दर्द की चेहरे पर लकीरें ¡मौत की हरकदम पर आहट!इस आनी जानी दुनियां की बस्ती में सभी की हस्ती एक दिन मिट जानी है।मुगालते में पलता हर आदमी आसमानी उड़ान पर तब तक रहता जब तक स्वार्थ की चंचल चपला हमला नहीं कर देती है।घायल परिंदों के तरह फड़फड़ाते दम तोड देने की परम्परा परवान चढ़ रही हैं! जब तक सांसों  का सम्वर्द्धन  प्राप्त है नेकी की खेती कर लो उसी की पैदावार से भवसागर पार करने का सम्बल मिलेगा वर्ना इस मिथ्या जगत में सब कुछ दिखावा है! कोई नहीं अपना सिर्फ मृगतृष्णा भरा छलावा है??
सबका मालिक एक 🕉️ साई राम🌹🌹🙏🏾
जगदीश सिंह सम्पादक राष्ट्रीय अध्यक्ष राष्ट्रीय पत्रकार संघ भारत 7860503468

Leave a Comment