नवासए रसूल हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहु अन्ह की यौमे शहादत पर विशेष कालम

पूर्वांचल बुलेटिन निष्पक्ष ख़बर सैय्यद शफीकूरहमान की रिपोर्ट संत कबीर नगर।

नवासए रसूल हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहु अन्ह की यौमे शहादत पर विशेष कालम।
अज़ क़लम: मुहम्मद सलमान आरिफ नदवी।

बचपन में पढ़ी गई किताबों में एक पुरानी किताब थी, जिस के शुरू और आख़िर के पन्ने फटे हुए थे। इस लिए नाम न मालूम हो सका। अलबत्ता यह अच्छी तरह याद है कि उस में मैदाने करबला की बड़ी दर्दनाक अंदाज में मंज़रकशी की गई थी। यह किताब पद्य में थी। और लिपि तो उर्दू थी, पर भाषा अवधी और पूर्बी का मिश्रण थी।

इसी तरह प्राइमरी कोर्स की अब्रे रहमत नामक प्रसिद्ध पुस्तक का एक पाठ पढ़ा जो अब तक ज़बान पर रवाँ है। लीजिए आप भी कलेजा थाम कर सुनिए।

“करबला का मैदान है। रात की आख़िरी घड़ी है। कोई कोई तारा अभी आसमान पर बाक़ी है। लेकिन उदास है। तीन दिन का भूखा और प्यासा मुसाफिर आँख खोलता है। उसे चारों तरफ दुश्मन की फौज दिखाई पड़ती है। और आसमान की तरफ देखता है तो उसे मालूम पड़ता है कि हूरें उसे सलाम करती हैं, और फरिश्ते उस के आने की राह देख रहे हैं। ज़मीन पर रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के बाग के फूल उस के चारों तरफ हैं, मगर कुम्हलाए हुए हैं। उस में से एक फूल सा लड़का मुसाफिर के बहुत नज़दीक है। मुसाफिर उस को देखता है और उसे रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की शक्ल याद आ जाती है। मुसाफिर उस जिगर के टुकड़े पर एक हसरत भरी निगाह डालता है और कहता है कि उठो अली अकबर अज़ान दो। सुबह होती है। थोड़ी देर में अली अकबर की अज़ान गूँजती है। यह आख़िरी अज़ान थी जो बाप ने बेटे के मुँह से सुनी। जमाअ्त खड़ी हुई। नमाज़ हुई। यह आख़िरी नमाज़ थी जो बाप ने बेटे के पीछे और भाई ने भाई के पीछे पढ़ी।… सूरज निकला। लू चली। ज़मीन तपी। शरीर और दोज़ख़ी दुश्मनों ने दिन ढलते ढलते रसूल के बाग के फूल और पत्तियाँ करबला के मैदान में बिखेर कर रख दीं”।

बचपन था। दिल की तख्ती साफ थी। उस समय जो कुछ पढ़ा गया, सुना गया। वह पत्थर की लकीर बन गया, या यूँ कह लीजिए कि दिल की तख्ती पर सदा के लिए छप गया। यानी मैदाने करबला में भूखे प्यासों की एक पवित्र टोली पर क्रूरता की सारी सीमाएँ लाँघ जाने वाले बदबख़्तों के रेवड़ की पूरी करतूत बचपन से ही कण्ठस्थ हो गई, जिस में निरन्तर बढ़ोतरी होती गई।

आइए शहीदे करबला हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहु अन्ह की जीवनी पर एक सरसरी नज़र डालते चलें।

हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहु अन्ह 05 शाबान सन 04 हिजरी यानी 10 जनवरी सन 626 ईस्वी में मदीना मुनव्वरा में पैदा हुए। पिता हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्ह ने आप का नाम हर्ब रखा। लेकिन आप के नाना यानी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने नाम बदलकर हुसैन रख दिया ।

आप की इब्तिदाई तालीम व तरबियत माता हज़रत फातिमा रज़ियल्लाहु अन्हा की गोद में हुई। और फिर बराहे रास्त दर्सगाहे नबवी से फैज़याब होने लगे। जिस की बिना पर आप के अंदर वह तमाम विशेषताएँ जो नबवी स्कूल से प्राप्त होनी चाहिए थीं, आप के अंदर रच बस गईं। इस तरबियत का ही असर था कि हर कठिन मरहले में अडिग व अटल रहे।

चूंकि आप की उठान शजरे नुबुव्वत के साए में हुई थी अत: बचपन से ही आप सत्य के मार्ग के पथिक रहे। हक़ का दामन कभी हाथ से छूटने न दिया। न किसी जालिम के आगे झुके, और न ही हक़ के मार्ग से टले।

नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम आप से बहुत प्रेम करते थे। गोद में उठाते। सीने पर बिठाते। कंधे पर चढ़ाते। एक बार नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम नमाज़ अदा कर रहे थे। सजदे की हालत में थे। हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहु अन्ह जो कि अभी बच्चे थे, खेलते खेलते आ निकले, और आप की पीठ पर जा बैठे। नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का सजदा लम्बा होता गया, यहाँ तक कि स्वयं हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहु अन्ह आप की पीठ पर से नीचे उतर आए।

नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि हसन और हुसैन जन्नती युवकों के सरदार होंगे। यह भी फरमाया कि ऐ अल्लाह! मैं इन से मुहब्बत करता हूँ, तू भी इन से मुहब्बत कर। एक मौक़े पर इरशाद फरमाया कि जिस ने हसन व हुसैन से मुहब्बत की तो उस ने निस्संदेह मुझ से मुहब्बत की। और जिस ने उन दोनों से बैर रखा, निस्संदेह उस ने मुझ से बैर रखा।

हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहु अन्ह नेहायत परहेज़गार और सरल स्वभाव के मालिक थे। ग़रीबों की सहायता करना आप का पसंदीदा मशग़ला था। दाहिने हाथ से देते बाएँ हाथ को खबर न होती। आप ने पैदल चल कर 25 हज भी किए।
क़लम ज़िन्दा, तहरीर बाक़ी

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